गौरवशाली एवं समृद्ध इतिहास, प्रसिद्ध व्यक्तित्व एवं प्रतिभाशाली भविष्य

पटेढ़ी के कायस्थ राजा नग नारायण सिंह

पटेढ़ी के कायस्थ राजा नग नारायण सिंह

साहित्यप्रेमीऔर मॉं भगवती दुर्गा के परम भक्त बाबू नगनारायण सिंह का जन्म पटेढी के प्रतिष्ठित कायस्थ बाबू जूबालाल सिंह के यहॉं सन् १८१९ ई की ज्येष्ठ -शुक्ला चतुर्थी के शुभ दिन हुआ था।इनके कुल की ज़मींदारी में चार सौ चौरासी गाँव थे जिसकी वार्षिक आय लगभग सात लाख रुपये थी।इनके पितामह का नाम था
कर्ताराम सिंह।
नग नारायण जी ग़ौर वर्ण,के थे।सुगठित शरीर और आकर्षक व्यक्तित्व के धनीमानी।वे मिरज़ई, चुनदार धोती, कंधे पर शॉल, सिर पर पगड़ी पहन कर निकलते थे तब लोग बस देखते ही रह जाते थे। गर्मियों में मलमलकी पोशाक पहनतेथे। सिर पर मोटी शिखाऔर प्रशस्त भाल पर त्रिपुंड तिलक लगाकर भक्ति भाव से पूजा करते थे।
शैल कुमारी मॉं भगवती के चरण कमलों में अपनी श्रद्धा निवेदित करते भाव विभोर हो अपने संस्कृत में दुर्गा सार संग्रह और ब्रजभाषा में 'दुर्गा प्रेम तरंगिनी के गीत मॉं को सुनाते थे।
ये दोनों इनके हस्त लिखित ग्रंथ आज भी बिहार राष्ट्र भाषा परिषद के अनुसंधान विभाग में सुरक्षित हैं ।अनन्य श्रद्धा से भक्ति गीत गाते -
'जय देवी दुर्गे अमित रूपिनि, अलख गति अद्भुत स्व रूपिनि ।
अकथ-यश माया अनूपिनि ब्रह्म स्वरूपिनि हे ।।
मॉं जगदंबे की अपूर्व शोभा देख विभोर होकर गाते
मानो कोई सखी कह रही हो- 'सखि री !देखू अचरज बात।
अंग अंग विचित्र सोभा, जगजननी के गात ।।
           दस बजे तक सब करके ये कचहरी जाते और आकर चार बजे भोजन करते थे। उस समय अकेले नहीं ,वरन साठ-सत्तर  लोगों के साथ सानन्द खाते।
इसके बाद ' नज़र बाग़' में टहलते थे।साहित्य प्रेमियों  का दरबार लगता ,जिसमें साहित्य चर्चा में रात के दो बज जाते थे। तब जाकर भोजन करते थे। अतिथि सत्कार,
दीन दुखियों की सेवा और कलाकारों का सम्मान करना इन्हें बहुत प्रिय था।साहित्य के साथ अध्यात्म , सद्विचार ,गुरुकृपा पर बातें होती थीं।
नवरात्र में धूमधाम से कलश-स्थापना और चंडीपाठ से वातावरण भक्तिमय हो उठता था।भागलपुर जि के गोपालपुर निवासी लाल बाबू थे अंबिकाशरण,आद्याशरण,धनुषधारी सिंह मोतिहारी के फुल्ले बाबू इनके दरबारी कवि थे ।रघुवीर नारायणसिंह और जानकी शरण इनके समकालीन कवि थे।
काव्य शास्त्र के अलावे ज्योतिष,संगीत-शास्त्र के राग रागिनियों ओर आयुर्वेद की भी चर्चा होती थी देवी-देवताओं पर हज़ारों पदों की रचनाएँ  होती थीं ।फ़ारसी , संस्कृत, हिन्दी और उर्दू में भी कविताएँ लोग करते थे।
नगनारायण सिंह ग़रीबों के मसीहाऔर प्रजा के हितैषी थे।सभी उच्च घराने जैसे -बेतिया ,डुमरॉंव, रामनगर,हथुआ, मॉंझा वहोरा आदि शादी-विवाह में पटेढी रियासत के शाह दरवाज़े के सामने  से मिट्टी मंगवाते थे।नुमाइन्दों को शाही विदाई मिलती थी। हथुआ राज ने मिट्टी मंगाने के समय एक हाथी भेंट के रूप में दी थी । नगनारायण  सिंह ने इस प्यारे हाथी  का नाम हरिहर प्रसाद रखा था।
            एक रियाया जब चटाई बेचने आया तब उस ग़रीब की कुल नौ चटाई भी ख़रीद ली गई और वह नौ महीने दरबार में आराम से रहा भी । यही नहीं, इन्होंने  अपने मुंशी माधो सिंह से कहा-'चटाई की क़ीमत नौ रुपये के बदले इसे पनियाडीह गॉंव में पाँच बीघा खेत दे दो,ताकि अपने परिवार का पेट पाल सके।'
आजतक यह कहावत मशहूर है पटेढी का- 'एक टका चटाई नौ टका विदाई ।'
एक बार  सपने में जब एक साँप के गले में मेंढक अटकने से उसे बहुत कष्ट में देखा तब दूसरे दिन गोबर से आँगन लिपवाकर सर्प का ध्यान कर कहा-'जो सर्प सपने में कष्ट में था वह कृपया सामने पधारे'। सर्प फ़न उठाये मुँह खोलकर उपस्थित हे गया ।तब बाबू साहब ने हाथ में कपड़ा लपेटकर ,साँप के मुँह में हाथ डालकर, उसके गले में फँसे मेंढक को बाहर निकाला। पीड़ा से मुक्त होने पर साँप ने आशीष दिया।
तब साँप ने पूँछ पटककर कृतज्ञता प्रकट की। सपने में सांप ने कहा-'आपने मेरा कष्ट दूर किया, आपके ख़ानदान में अब कभी किसी की मृत्यु साँप के काटने से नही होगी।'
सन् १९८० ई में इकहत्तर वर्ष की आयु में  नगनारायण बाबू संग्रहणी रोग के शिकार हो गये।उसी वर्ष उनका स्वर्गवास हो गया। उन्हें लोग अयोध्या ले गये। दूसरे ही दिन अपने नश्वर पंचभौतिक शरीर का परित्याग कर  ये स्वर्ग सिधार गये।
अंतिम दोहा उनके मुख से यह निकला था-
'कोटिकाल कासी बसे,मथुरा कल्प पचास ।
एक निमिष सरयू बसे,तुले न तुलसीदास ।।
ये हैं पटेढी के अनमोल नगीना-नगनारायन सिंह। इस अनन्य रतन को हम सबका -सादर नमन
 लेखिका : सर्वाधिकार -डॉ आशा श्रीवास्तव